काम ख़तम पैसा हजम, केजरीवाल सरकार ने दिल्ली के सस्ते निजी स्कूलों को मझदार में छोड़ा

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नई दिल्ली, 8 फरवरी: दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया से मुलाकात के चार महीने बाद उनके द्वारा किए गए वादों के पूरे न होने से निराश सस्ते निजी स्कूलों (बीपीएस) का प्रतिनिधित्व करने वाले एक संगठन का कहना है कि शहर में स्थित कम लागत वाले ऐसे स्कूलों की समस्याओं को सरकार द्वारा नजरअंदाज कर दिया जाता है और इन स्कूलों की हालत बेहद चिंताजनक है। 

देश के सभी सस्ते निजी स्कूलों को एक मंच प्रदान करने वाले संगठन 'नेशनल इंडिपेंडेंट स्कूल्स अलाएंस' (नीसा) ने 28 सितंबर को सिसोदिया से मुलाकात की थी।

नीसा के नीति सलाहकार अमित चंद्रा ने आईएएनएस से कहा, "उन्होंने (सिसोदिया) उस समय हमें सहयोग का वादा किया था और हमें एक समीक्षा समिति के लिए सलाह भेजने को भी कहा था, जो वह हमारे मुद्दों के लिए गठित करने वाले थे..उसके बाद से ही उनसे संपर्क के हमारे सभी प्रयास नाकाम रहे।"

उन्होंने कहा, "हमें लगता है कि दिल्ली के उप मुख्यमंत्री को बड़े-बड़े दावे करने के लिए एक मंच की जरूरत थी। 28 सितंबर को आयोजित हमारे सम्मेलन के बाद चार महीने बीत चुके हैं, जिसमें कई राज्यों के नीसा के प्रतिनिधियों ने उन्हें एक आठ सूत्री चार्टर सौंपा था।"

आईएएनएस ने सिसोदिया के कार्यालय और शिक्षा विभाग के अन्य अधिकारियों से संपर्क करने का बार-बार प्रयास किया, लेकिन कोई जवाब नहीं मिला।

सस्ते निजी स्कूल (बीपीएस) स्कूलों की एक मध्यवर्ती श्रेणी है, जो बड़ी संख्या में बच्चों को शिक्षा उपलब्ध कराते हैं। इन स्कूलों का सालाना बजट दिल्ली सरकार द्वारा एक बच्चे पर सालाना खर्च किए जाने से कम या बराबर है।

चंद्रा के मुताबिक, दिल्ली के 45 प्रतिशत स्कूल निजी हैं, जिनमें से डीपीएस, मॉडर्न, गोयनका आदि जैसे केवल पांच से 10 प्रतिशत स्कूल ही बड़े या संभ्रांत स्कूलों की श्रेणी में आते हैं, जबकि शेष सस्ते निजी स्कूल या बीपीएस श्रेणी में आते हैं, जो कि अपने बच्चों को शिक्षा प्रदान कराने के लिए स्थानीय निम्न या निम्न मध्य वर्ग की पसंद होते हैं।

उन्होंने कहा कि हालांकि बीपीएस स्कूल विद्यार्थियों से बहुत कम फीस लेते हैं, लेकिन उन्हें राज्य सरकार से कोई सहायता नहीं मिलती।

उन्होंने कहा, "बल्कि उन पर कई प्रकार के प्रतिबंध लगाए जाते हैं, जो उनकी वित्तीय स्थिति को देखते हुए उनकी कमर तोड़ने के लिए काफी होते हैं।"

चंद्रा ने कहा, "हमारा पंजीकरण 'सोसायटी पंजीकरण अधिनियम' के तहत होता है, इस लिहाज से हमें गैर-लाभकारी संगठन माना जाता है और हमसे व्यावसायिक संगठनों के समान ही बिजली और पानी के बिल और संपत्ति कर वूसले जाते हैं।"

चंद्रा ने अपनी समस्याओं के लिए जटिल नौकरशाही तंत्र को जिम्मेदार ठहराया, जिसका सामना हर स्कूल को करना पड़ता है।

चंद्रा ने कहा, "निजी स्कूल शुरू करने के लिए श्रमिक, डीडीए, जल, बिजली जैसे विभागों से 50 लाइसेंस लेने पड़ते हैं। हमने इन सभी परेशानियों से बचने के लिए एकल खिड़की व्यवस्था की मांग की थी, लेकिन सिसोदिया जी ने इसका अधिकार न होने का हवाला देते हुए इसमें अपनी असमर्थता जता दी।"

चंद्रा ने बीपीएस की स्थिति को लेकर एक सामाजिक पहलू की ओर भी ध्यान खींचा।

चंद्रा ने कहा कि भारत में ज्यादातर बच्चे कक्षा पांच के बाद स्कूल छोड़ देते हैं। वह इसका कारण यह बताते हैं कि कक्षा पांच से ऊपर के विद्यार्थियों को शिक्षा उपलब्ध कराने वाले बीपीएस स्कूल बेहद कम हैं और कई अभिभावक अपने बच्चों को उच्च शिक्षा के लिए दूर स्थित बड़े स्कूलों में भेजने में असमर्थ हैं।

भूमि से जुड़े नियम भी बीपीएस स्कूलों की राह में एक बड़ी बाधा हैं। चंद्रा इसे 'अव्यवहारिक' और स्थानीय बच्चों के हित के विपरीत करार देते हैं। 

उन्होंने कहा, "पांचवी कक्षा तक शिक्षा प्रदान करने वाले स्कूलों का क्षेत्रफल 200 वर्ग गज होना जरूरी है, जबकि कक्षा आठ के लिए यह 800 वर्ग गज होना चाहिए।"

चंद्रा ने कहा, "दिल्ली में जमीन मिलना बेहद मुश्किल है और जहां पहले से ही स्कूल बने हो, उस जमीन का विस्तार करना लगभग नामुमकिन है। इसलिए अधिकांश बच्चों के पास पांचवी कक्षा के बाद स्कूल छोड़ने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं होता।"

स्कूलों का कहना है कि इस मुश्किल का उपाय यह है कि स्कूलों को क्षेत्रफल (फ्लोर एरिया) के आधार पर मान्यता दी जानी चाहिए। अगर यह व्यवस्था लागू कर दी जाती है तो इससे (दिल्ली में स्थित 3,000 बीपीएस स्कूलों में) कम से कम 90,000 अधिक कक्षाएं बनाई जा सकेंगी और इससे कमजोर आय वर्ग (ईडब्लयूएस) के ज्यादा बच्चे इनमें शिक्षा प्राप्त कर सकेंगे।

सम्मेलन में सिसोदिया से इन स्कूलों को आंशिक तौर पर अनुदान और कम दर पर वित्तीय सहायता उपलब्ध कराने के लिए एक स्कूल वित्त पोषण समिति गठित करने की मांग भी की गई थी।

चंद्रा ने कहा, "गैर-लाभकारी संस्थाओं के तौर पर हम बैंक से ऋण नहीं ले सकते, इसलिए हमने उच्च शैक्षणिक संस्थानों को वित्त पोषण प्रदान करने वाली उच्च शिक्षा वित्त पोषण एजेंसी (एचईएफए) की तर्ज पर स्कूलों के लिए वित्त पोषण समिति की मांग की थी।"

उन्होंने कहा कि सरकार का अपने वादे से पूरी तरह पलट जाना बेहद निराशाजनक है।
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Delhi

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